केंद्र सरकार ने संसद में अपने बहुमत का इस्तेमाल करके महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को खत्म कर दिया है। इसकी जगह जो नया कानून लाया गया है, वह पूरी तरह से "अधिकार चोरी" वाला कानून है। इसने मनरेगा के मूल स्वरूप को ही बदल दिया है। यह ग्रामीण गरीब मज़दूरों के अधिकारों पर सीधा हमला है और इसे भारत के संविधान पर हमले के रूप में देखा जाना चाहिए।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 41 में कहा गया है : "राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, काम के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए प्रभावी प्रावधान करेगा..."। संविधान सभा में समाजवादी आदर्शों से प्रभावित लोग काम के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थे और मज़बूत पूंजीवादी लॉबी इसका विरोध कर रही थी। दोनों के बीच विचारों में गहरा मतभेद था। आखिरकार इसे संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया। अंबेडकर ने इसे एक "नई विशेषता" बताया था, यह कहते हुए कि हालांकि ये नीति-निर्देशक सिद्धांत न्याय नहीं करते, फिर भी इन्हें कानून बनाने वालों के लिए "निर्देश के साधन" माना जाना चाहिए और ये "आर्थिक लोकतंत्र के लिए ज़रूरी" है। समाजवाद-समर्थक सदस्य के.टी. शाह ने तब इसे "पवित्र इच्छाएं" बताया था। शाह के शब्द इन सालों के पूंजीवादी "विकास" के दौरान बेरोज़गारों और काम के अवसरों से उनके वंचित होने के जीवंत अनुभवों में आज भी गूंजते हैं।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 41 में कहा गया है : "राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, काम के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए प्रभावी प्रावधान करेगा..."। संविधान सभा में समाजवादी आदर्शों से प्रभावित लोग काम के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थे और मज़बूत पूंजीवादी लॉबी इसका विरोध कर रही थी। दोनों के बीच विचारों में गहरा मतभेद था। आखिरकार इसे संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया। अंबेडकर ने इसे एक "नई विशेषता" बताया था, यह कहते हुए कि हालांकि ये नीति-निर्देशक सिद्धांत न्याय नहीं करते, फिर भी इन्हें कानून बनाने वालों के लिए "निर्देश के साधन" माना जाना चाहिए और ये "आर्थिक लोकतंत्र के लिए ज़रूरी" है। समाजवाद-समर्थक सदस्य के.टी. शाह ने तब इसे "पवित्र इच्छाएं" बताया था। शाह के शब्द इन सालों के पूंजीवादी "विकास" के दौरान बेरोज़गारों और काम के अवसरों से उनके वंचित होने के जीवंत अनुभवों में आज भी गूंजते हैं।
मेहनतकश लोगों के संघर्षों और बड़े राजनीतिक बदलावों को साढ़े पांच दशक लगे, ताकि नीतियों में एक ऐसा बदलाव हो सके, जो नीति-निर्देशक सिद्धांतों के कुछ ज़्यादा करीब हो और खास तौर पर काम के अधिकार को सुनिश्चित करे। 2004 के लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग से भाजपा हार गई थी, लेकिन कांग्रेस को भी बहुमत नहीं मिला, जिससे ऐसी स्थिति बनी कि पहली बार केंद्र सरकार वामपंथी पार्टियों के समर्थन पर निर्भर थी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि माकपा के नेतृत्व वाली वामपंथी पार्टियों ने अपने कार्यक्रम और ताकत के दम पर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम इसी राजनीतिक स्थिति के कारण संभव हो पाया था। वामपंथी पार्टियों ने 2005 में संसद द्वारा सर्वसम्मति से अपनाए गए अंतिम कानून को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यह कानून काम के अधिकार को आंशिक रूप से मान्यता देता है और राज्य की इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार करता है कि वह न्यूनतम मज़दूरी पर काम देने के लिए राष्ट्रीय संसाधनों में ज़्यादा हिस्सा सुनिश्चित करे। यह कानून ग्रामीण परिवारों को पूरे साल में कम से कम 100 दिन के काम की गारंटी देता है और यह सार्वभौमिक है, जो सभी वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए खुला है, जो स्वेच्छा से शारीरिक श्रम का काम करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कानून काम की मांग को पूरा करने पर आधारित है, जो स्थिर नहीं है और ग्रामीण परिवारों की ज़रूरत के अनुसार बढ़ या घट सकती है। इसमें एक गहरी लोकतांत्रिक भावना है। यदि किसी परिवार के पास रोज़गार के बेहतर विकल्प हैं, तो उसे मनरेगा द्वारा प्रदान किए गए अधिकार को बनाए रखते हुए उस विकल्प का प्रयोग करने का अधिकार है। यह कानून पुरुषों और महिलाओं को समान मज़दूरी की गारंटी देता है, जिसका पूरा भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किया जाएगा। इस कानून के तहत राज्य सरकारें लगभग 10 प्रतिशत की कुछ वित्तीय ज़िम्मेदारी उठाती हैं और उन्हें राज्य की ज़रूरतों के अनुसार, योजनाओं की रूपरेखा बनाने और उनके क्रियान्वयन में अपनी बात रखने का अधिकार है। पंचायतों को अपने अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले क्षेत्रों में आवश्यक परियोजनाओं की पहचान करने और उन्हें डिज़ाइन करने का अधिकार और ज़िम्मेदारी दोनों हैं। यह मांग आधारित सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाला कानून शायद पूंजीवादी दुनिया में अपनी तरह का पहला कानून था।
मोदी सरकार ने अपने ढोलकबाज सहयोगियों टीडीपी और जेडी (यू) के साथ मिलकर इस कानून की सभी बुनियादी विशेषताओं को खत्म कर दिया है। यह अब मांग से संचालित नहीं होगा, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा तय किए गए "मानक वित्तीय आबंटन" के आधार पर तय होगा। अगर खर्च इस आबंटन से ज़्यादा होता है, तो केंद्र पर कानूनी तौर पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी। राज्य, जो पहले से ही केंद्रीय कर राजस्व में अपने हिस्से से वंचित होने के कारण वित्तीय संकट में हैं, उन पर 40 प्रतिशत लागत का बोझ डाला जा रहा है। ऐसे माहौल में काम के दिनों को बढ़ाकर 125 दिन करना एक मज़ाक है। यह बहुत ज़्यादा केंद्रीकृत है और परियोजना की रूपरेखा से लेकर डिजिटलाइज़्ड अंकेक्षण तक सब कुछ केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाएगा। ये विशेषताएं संविधान के संघीय स्वरूप पर सीधा हमला हैं।
ग्रामीण अमीरों के पक्ष में वर्गीय भेदभाव इस कानून की धाराओं में साफ तौर पर दिखता है, जो सघन-खेती के मौसम में प्रस्तावित कानून के तहत किसी भी काम पर रोक लगाता है। खेती में मशीनीकरण बढ़ने से काम के दिन बहुत कम हो गए हैं। मनरेगा का काम का पैटर्न दिखाता है कि जब खेती का काम नहीं होता और जब दी जाने वाली मज़दूरी मनरेगा की तुलना में कम होती है, तभी मज़दूर सघन-कृषि मौसम में मनरेगा को चुनते हैं। यह रोक ग्रामीण मज़दूरों की मोलभाव करने की क्षमता को कम कर देगी, जो मनरेगा की गैर-मौजूदगी में बड़े ज़मींदारों द्वारा तय की गई शर्तों और नियमों को मानने के लिए मजबूर होंगे। इसका असर खासकर महिलाओं पर पड़ेगा, जिन्हें खेती में पुरुषों से कम मज़दूरी मिलती है। यह कानून आधार कार्ड को लिंक करने, ऑनलाइन डिजिटल रूप से रिकॉर्ड की गई हाज़िरी को योग्यता और मज़दूरी भुगतान की शर्त के तौर पर कानूनी बनाता है। यह सब इस बात के काफी सबूत होने के बावजूद किया जा रहा है कि खराब कनेक्टिविटी जैसी स्थितियों ने मज़दूरों को काफी परेशान किया है।
कानून के नाम के तौर पर जी राम जी के संक्षिप्त नाम का इस्तेमाल करना, राम को मानने वालों को लुभाने के लिए एक घटिया चाल है। लेकिन जब करोड़ों लोग इस कानून के खिलाफ जी-राम-जी मुर्दाबाद चिल्लाएंगे, तो इससे भावनाएं आहत हो सकती हैं और यह सरकार पर उल्टा पड़ सकता है।
हममें से वे लोग, जो मनरेगा मज़दूरों के साथ मिलकर काम करते हैं, वे जानते हैं कि लोग कितनी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं। कुछ मामलों में महिलाओं को उत्पादकता का मापदंड पूरा करने के लिए एक दिन में 3000 किलो तक मिट्टी उठानी पड़ती है, और इसके बावजूद अगर ज़्यादातर राज्यों में मनरेगा मज़दूरों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएं हैं, तो यह निश्चित रूप से खेती-बाड़ी की गहरे संकट और बेहतर विकल्प की कमी को दिखाता है। आदिवासियों की आबादी लगभग 8.6 प्रतिशत है। लेकिन पिछले साल के आंकड़ों के अनुसार मनरेगा मज़दूरों में उनका अनुपात 18 प्रतिशत तक है और अनुसूचित जाति के लोगों का 19 प्रतिशत हैं। चूंकि दो-तिहाई से ज़्यादा मज़दूर संविधान द्वारा संरक्षित सामाजिक श्रेणियों से आते हैं, उनके अधिकारों में कोई भी बदलाव संविधान पर हमला है। लेकिन नए कानून में शिकायत निवारण/सलाहकार परिषदों में भी उनका प्रतिनिधित्व खत्म कर दिया गया है।
2014 से, मोदी सरकार ने मनरेगा को कमजोर किया है और इसके वित्त-पोषण में कटौती कर दी है, जबकि उसने कॉर्पोरेट्स को करों में छूट दी है और उनकी कर्ज माफी में काफी बढ़ोतरी हुई है। जहाँ शुरुआती दिनों में मनरेगा मजदूरों की संख्या लगभग दो करोड़ थी, अब बढ़कर 7.7 करोड़ से ज़्यादा हो गई है, वहीं खर्च स्थिर रहा है या कम हुआ है और वह कभी भी जीडीपी के 0.2 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हुआ है। 2024-25 में, 8.9 करोड़ मजदूरों ने काम माँगा, लेकिन सिर्फ़ 7.9 करोड़ मजदूरों को काम मिला— 99 लाख से ज्यादा मजदूरों को काम नहीं दिया गया और उन्हें वापस भेज दिया गया। मज़दूरी का बकाया बढ़ता गया है — कभी-कभी 8000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। परिवारों को 100 दिनों के बजाय औसतन 50 दिनों से भी कम काम मिला है। प्रस्तावित ड्राफ्ट में 125 दिनों का वादा करना जले पर नमक छिड़कने जैसा है। लेकिन अगर लोग मनरेगा स्थलों पर आते रहते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है — भारत के ग्रामीण गरीबों के जीवन में इतनी ज़्यादा निराशा और अस्थिरता है।
वह जीवन रेखा, मज़बूत करने के बजाय अब काट दी गई है। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को बुलडोज़र से कुचला जा रहा है। इस सरकार पर शर्म आती है।
यह कानून काम के अधिकार को आंशिक रूप से मान्यता देता है और राज्य की इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार करता है कि वह न्यूनतम मज़दूरी पर काम देने के लिए राष्ट्रीय संसाधनों में ज़्यादा हिस्सा सुनिश्चित करे। यह कानून ग्रामीण परिवारों को पूरे साल में कम से कम 100 दिन के काम की गारंटी देता है और यह सार्वभौमिक है, जो सभी वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए खुला है, जो स्वेच्छा से शारीरिक श्रम का काम करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कानून काम की मांग को पूरा करने पर आधारित है, जो स्थिर नहीं है और ग्रामीण परिवारों की ज़रूरत के अनुसार बढ़ या घट सकती है। इसमें एक गहरी लोकतांत्रिक भावना है। यदि किसी परिवार के पास रोज़गार के बेहतर विकल्प हैं, तो उसे मनरेगा द्वारा प्रदान किए गए अधिकार को बनाए रखते हुए उस विकल्प का प्रयोग करने का अधिकार है। यह कानून पुरुषों और महिलाओं को समान मज़दूरी की गारंटी देता है, जिसका पूरा भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किया जाएगा। इस कानून के तहत राज्य सरकारें लगभग 10 प्रतिशत की कुछ वित्तीय ज़िम्मेदारी उठाती हैं और उन्हें राज्य की ज़रूरतों के अनुसार, योजनाओं की रूपरेखा बनाने और उनके क्रियान्वयन में अपनी बात रखने का अधिकार है। पंचायतों को अपने अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले क्षेत्रों में आवश्यक परियोजनाओं की पहचान करने और उन्हें डिज़ाइन करने का अधिकार और ज़िम्मेदारी दोनों हैं। यह मांग आधारित सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाला कानून शायद पूंजीवादी दुनिया में अपनी तरह का पहला कानून था।
मोदी सरकार ने अपने ढोलकबाज सहयोगियों टीडीपी और जेडी (यू) के साथ मिलकर इस कानून की सभी बुनियादी विशेषताओं को खत्म कर दिया है। यह अब मांग से संचालित नहीं होगा, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा तय किए गए "मानक वित्तीय आबंटन" के आधार पर तय होगा। अगर खर्च इस आबंटन से ज़्यादा होता है, तो केंद्र पर कानूनी तौर पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी। राज्य, जो पहले से ही केंद्रीय कर राजस्व में अपने हिस्से से वंचित होने के कारण वित्तीय संकट में हैं, उन पर 40 प्रतिशत लागत का बोझ डाला जा रहा है। ऐसे माहौल में काम के दिनों को बढ़ाकर 125 दिन करना एक मज़ाक है। यह बहुत ज़्यादा केंद्रीकृत है और परियोजना की रूपरेखा से लेकर डिजिटलाइज़्ड अंकेक्षण तक सब कुछ केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाएगा। ये विशेषताएं संविधान के संघीय स्वरूप पर सीधा हमला हैं।
ग्रामीण अमीरों के पक्ष में वर्गीय भेदभाव इस कानून की धाराओं में साफ तौर पर दिखता है, जो सघन-खेती के मौसम में प्रस्तावित कानून के तहत किसी भी काम पर रोक लगाता है। खेती में मशीनीकरण बढ़ने से काम के दिन बहुत कम हो गए हैं। मनरेगा का काम का पैटर्न दिखाता है कि जब खेती का काम नहीं होता और जब दी जाने वाली मज़दूरी मनरेगा की तुलना में कम होती है, तभी मज़दूर सघन-कृषि मौसम में मनरेगा को चुनते हैं। यह रोक ग्रामीण मज़दूरों की मोलभाव करने की क्षमता को कम कर देगी, जो मनरेगा की गैर-मौजूदगी में बड़े ज़मींदारों द्वारा तय की गई शर्तों और नियमों को मानने के लिए मजबूर होंगे। इसका असर खासकर महिलाओं पर पड़ेगा, जिन्हें खेती में पुरुषों से कम मज़दूरी मिलती है। यह कानून आधार कार्ड को लिंक करने, ऑनलाइन डिजिटल रूप से रिकॉर्ड की गई हाज़िरी को योग्यता और मज़दूरी भुगतान की शर्त के तौर पर कानूनी बनाता है। यह सब इस बात के काफी सबूत होने के बावजूद किया जा रहा है कि खराब कनेक्टिविटी जैसी स्थितियों ने मज़दूरों को काफी परेशान किया है।
कानून के नाम के तौर पर जी राम जी के संक्षिप्त नाम का इस्तेमाल करना, राम को मानने वालों को लुभाने के लिए एक घटिया चाल है। लेकिन जब करोड़ों लोग इस कानून के खिलाफ जी-राम-जी मुर्दाबाद चिल्लाएंगे, तो इससे भावनाएं आहत हो सकती हैं और यह सरकार पर उल्टा पड़ सकता है।
हममें से वे लोग, जो मनरेगा मज़दूरों के साथ मिलकर काम करते हैं, वे जानते हैं कि लोग कितनी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं। कुछ मामलों में महिलाओं को उत्पादकता का मापदंड पूरा करने के लिए एक दिन में 3000 किलो तक मिट्टी उठानी पड़ती है, और इसके बावजूद अगर ज़्यादातर राज्यों में मनरेगा मज़दूरों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएं हैं, तो यह निश्चित रूप से खेती-बाड़ी की गहरे संकट और बेहतर विकल्प की कमी को दिखाता है। आदिवासियों की आबादी लगभग 8.6 प्रतिशत है। लेकिन पिछले साल के आंकड़ों के अनुसार मनरेगा मज़दूरों में उनका अनुपात 18 प्रतिशत तक है और अनुसूचित जाति के लोगों का 19 प्रतिशत हैं। चूंकि दो-तिहाई से ज़्यादा मज़दूर संविधान द्वारा संरक्षित सामाजिक श्रेणियों से आते हैं, उनके अधिकारों में कोई भी बदलाव संविधान पर हमला है। लेकिन नए कानून में शिकायत निवारण/सलाहकार परिषदों में भी उनका प्रतिनिधित्व खत्म कर दिया गया है।
2014 से, मोदी सरकार ने मनरेगा को कमजोर किया है और इसके वित्त-पोषण में कटौती कर दी है, जबकि उसने कॉर्पोरेट्स को करों में छूट दी है और उनकी कर्ज माफी में काफी बढ़ोतरी हुई है। जहाँ शुरुआती दिनों में मनरेगा मजदूरों की संख्या लगभग दो करोड़ थी, अब बढ़कर 7.7 करोड़ से ज़्यादा हो गई है, वहीं खर्च स्थिर रहा है या कम हुआ है और वह कभी भी जीडीपी के 0.2 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हुआ है। 2024-25 में, 8.9 करोड़ मजदूरों ने काम माँगा, लेकिन सिर्फ़ 7.9 करोड़ मजदूरों को काम मिला— 99 लाख से ज्यादा मजदूरों को काम नहीं दिया गया और उन्हें वापस भेज दिया गया। मज़दूरी का बकाया बढ़ता गया है — कभी-कभी 8000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। परिवारों को 100 दिनों के बजाय औसतन 50 दिनों से भी कम काम मिला है। प्रस्तावित ड्राफ्ट में 125 दिनों का वादा करना जले पर नमक छिड़कने जैसा है। लेकिन अगर लोग मनरेगा स्थलों पर आते रहते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है — भारत के ग्रामीण गरीबों के जीवन में इतनी ज़्यादा निराशा और अस्थिरता है।
वह जीवन रेखा, मज़बूत करने के बजाय अब काट दी गई है। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को बुलडोज़र से कुचला जा रहा है। इस सरकार पर शर्म आती है।
(आलेख : बृंदा करात, अनुवाद : संजय पराते)
(लेखिका माकपा पोलिट ब्यूरो की पूर्व-सदस्य और राज्यसभा की पूर्व-सदस्य हैं।
अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
संपर्क : 94242-31650)


0 टिप्पणियाँ