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वंदे मातरम् गीत ‘क्रांतिकारियों की प्रेरणा एवं भारत की एकता’ का प्रतीक

श्री सुधीर उध्ववराव मेथेकर
(वरिष्ठ लेखक)

हमारा दिन सुबह बिस्तर से उठते ही शुरू हो जाता है वो :
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥

इस प्रात:स्मरण से हम धरती को प्रणाम करते हैं। यही हमारी संस्कृति की परंपरा है। इतना ही नहीं, संत रामदास स्वामी ने कहा है कि,
अवघे होती पृथ्वीपासुनी ।
पृथ्वीमध्यें जाती नासोनी । 
अनेक येती जाती परी अवनी ।
तैसीच आहे ॥3॥ 

जिस पर पृथ्वी खड़ी है ऐसा सौर मंडल में सूरज से तीसरा ग्रह है पृथ्वी। इस धरती पर हम सबने अपनी ज़िंदगी बनाई है। जीवों के साथ-साथ पेड़ भी हैं। उन्हीं की वजह से हमें हवा, पानी, ऑक्सीजन और ज़रूरी खाना भी मिलता है।
अगर पृथ्वी नहीं होती, तो क्या आप इस बारे में सोच पाते? तब जवाब होगा नहीं! हम, जानवर, पक्षी, कीड़े और चींटियाँ, पृथ्वी पर यानी ग्रह पर फलते-फूलते हैं। इस ग्रह पर हम सब एक परिवार हैं यानी वसुधैव कुटुम्बकम्! 
हम सभी भारतीय इस माँ को वंदे मातरम् के रूप में प्रार्थना करते हैं और गीत गाते हैं। वंदे मातरम् सिर्फ एक गीत नहीं है, यह क्रांतिकारियों के लिए एक प्रेरणा है और भारत की एकता का प्रतीक है। बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा 7 नवंबर 1875 को लिखा गया। आज हम राष्ट्रीय स्तर पर उनकी 150वीं जयंती मना रहे हैं। यह गीत भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन गया है और पूरे देश में याद किया जाता है। यह राष्ट्रीय गीत, वंदे मातरम्, रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में बीडन स्क्वायर में हुए कलकत्ता कांग्रेस सेशन में गाया था। यह गीत कवयित्री सरला देवी चौदुरानी ने 1905 में बनारस कांग्रेस सेशन में गाया था।
इस गीत का मतलब है : हे माँ, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। जो पानी से भरी है, फलों से खिली हुई है, दक्षिणी हवा की लहरों से शांत है, और खिलती हुई फसलों से भरपूर है। मैं अपनी माँ को प्रणाम करता हूँ। हम जानते हैं कि इस गाने ने आज़ादी की लड़ाई में लोगों को एक साथ लाने और मातृभूमि के प्रति सम्मान दिखाने का काम किया है। यह गाना किसी धर्म के खिलाफ नहीं है, लेकिन यह कहते हुए दुख हो रहा है कि कुछ समुदाय बिना किसी वजह के इस गाने का विरोध करते हैं।

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