हमारी मेल डॉमिनेटिंग सोसाइटी भले ही महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने का राग अलापे, लेकिन वास्तव में महिलाओं को बराबरी का हक़ अभी नहीं मिला है। अगर मिला होता तो रसोई से लेकर बच्चे और बुजुर्गों की देखभाल तक की सारी ज़िम्मेदारी अकेले उसे ही नहीं उठानी पड़ती। दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश में ज़्यादातर पुरुषों की सोच यही है कि मैं मर्द हूं, भला मैं क्यों काम करूं, घर का काम तो औरतों के जिम्मे है। ऐसी सोच स़िर्फ कम पढ़े-लिखे युवक ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षित और प्रतिष्ठित नौकरी करने वाले पुरुषों की सोच भी ऐसी ही है।
21 वीं सदी के युवाओं को पत्नी वर्किंग तो चाहिए, लेकिन अपनी शर्तों पर यानी पत्नी की सैलरी और ओहदा उनसे ऊंचा न हो, यदि ऐसा हो जाए तो उनके अहंकार को ठेस पहुंच जाती है और वो पत्नी को मगरूर समझने लगते हैं। बात-बात पर खरी-खोटी सुनाना, बेवजह झगड़ा बढ़ाकर उन्हें दोषी ठहराने का एक मौक़ा भी नहीं जाने देते। ऐसे में अपनी क़ामयाबी ही महिलाओं को कुंठित कर देती है।
सुपर वूमैन ये शब्द सुनकर एकबारगी तो बहुत अच्छा लगता है, लेकिन क्या वाक़ई ये हमारे लिए ख़िताब है या फिर ज़िम्मेदारियों का बोझ मात्र है?
मेरी वाइफ किसी सुपर वूमैन से कम नहीं, वो कंपनी में एग्ज़ीक्यूटिव है। ऑफिस के साथ ही वो मेरे घर और बच्चों को भी बख़ूबी मैनेज कर लेती है। पत्नी की तारीफ़ में दोस्तों के सामने ऐसे कसीदे पढ़ने वाले पतियों की कमी नहीं है, लेकिन समाज में वर्किंग पत्नी का गुणगान करने वाले ऐसे पति घर के अंदर आते ही रंग बदल लेते हैं। दफ्तर से थकी-हारी आई पत्नी का किचन में हाथ बंटाना ये अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। हालांकि कुछ ऐसे पति ज़रूर हैं जो घर के काम में पत्नी की मदद कर वाक़ई उन्हें सुपर वूमैन का एहसास दिलाते हैं, लेकिन ऐसे समझदार पतियों की संख्या सीमित है। ज़्यादातर पुरुष पत्नी की तारीफ़ करके ही अपनी ज़िम्मेदारियों की इतिश्री मान लेते हैं। उन्हें लगता है उनके तारीफ़ भरे शब्द से पत्नी की ज़िम्मेदारी कम हो जाएगी। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि सुपर वूमैन की कसौटी पर खरा उतरने के लिए उनकी पत्नी किस मानसिक अवसाद व आंतरिक कशमकश की स्थिति से गुज़र रही होती है। ऑफिस से आने के बाद वो भी थक जाती है, उसे भी थोड़ा आराम चाहिए, इस ख़्याल से पति की फरमाइशें कभी कम नहीं होतीं।
सुपर वूमैन कहलाने वाली आजकल की ज़्यादातर कामकाजी महिलाएं दोहरे तनाव का सामना कर रही हैं। हर समय जहां उन पर अपने कार्यक्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ करने का दबाव रहता है, वहीं बच्चों को समय न दे पाने की गिल्ट उन्हें अंदर ही अंदर सताती रहती है। वह भी एक अच्छी लाइफ जहना चाहती है, अपितु इन दफ्टर, घर-ग्रहस्थी उसे अपने में घेर लेती है। कमाती भी है तो कई बार आर्थिक स्वतंत्रता उसे नहीं मिलती।
जहां पूरी दुनिया की महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, अभ्यासक बताते हैं, उन्हें स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करना बहुत जरूरी हो गया है। कई बार महिलाएं कई सारी चीजों को एकसाथ करने के चक्कर में वह मानसिक समस्याओं से ग्रसित होती हैं। ऐसे ही महिलाओं में ऑलराउंडर और मल्टी-टास्किंग होने के चक्कर में सुपर वूमैन सिंड्रोम (Superwoman Syndrome) की समस्या होती है जो कि काफी गंभीर है।
हाल ही मे पुणे के आरती चोथे इस विवाहिता का उसका पति उसे शारीरिक और मानसिक यातनायें देता था। इस वजह से उसे दिल का दौरा पड़ा, उसमें से वह बच गयी। अपितु उसने सहकारनगर पुलिस चौकी में रिपोर्ट दर्ज कराई है। यह उसका ही कदम है। महिलाओं को अब समझना होगा, अपने हक की लड़ाई खुद ही लड़नी होगी, कायदे कानून की बातें सीखनी होंगी।
यूरोपिए देशों में हाउस हसबैंड का कॉन्सेप्ट है, यानी पुरुष घर पर रहकर परिवार व बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी उठाते हैं और महिलाएं आर्थिक मोर्चा संभालती हैं और उनके इस व्यवहार में काफी सहजता दिखती हैं, लेकिन हमारे देश में इस तरह के दृष्टिकोण और कॉन्सेप्ट अभी कोसो दूर हैं!

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