हाल ही में 11 नवंबर की एक ठंडी सुबह, अभी देश ठीक से जागा भी नहीं था कि बॉलीवुड के ‘ही मैन’ की मौत की खबर से शोक के सागर में डूब गया और यह मिथ्या समाचार टीआरपी बटोरने वाले टीवी चैनलों के हवाले से कैलिफोर्निया के दावानल से भी तीव्रतम गति से पूरे देश में फैल गया। व्हाट्सएप वीरों, फेसबुक महारथियों, एक्स के रणबांकुरों तथा इंस्टाग्राम के योद्धाओं ने यथाशक्ति इस निधन वार्ता को प्रसारित- प्रचारित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। धर्मेंद्र के व्हाट्सएप स्टेटस लगाए गए, प्रोफाइल पिक्चर बनाए गए, श्रृद्धाजंलियों का तांता लग गया। जिनको धर्मेंद्र के साथ फोटुएं खींचाने का सौभाग्य मिला था, उनकी तो पौ बारह हो गई।
मेरे एक कवि मित्र ने धर्मेंद्र अभिनीत फिल्मों के नामों पर आधारित एक कविता भी श्रद्धांजलि स्वरुप रच दी और जैसा कि अपेक्षित था, वह तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री पीछे क्यों रहते? उन्होंने भी ताबड़तोब शोक संदेश जारी कर दिया। प्रातः 9:00 बजे धर्मेंद्र की बेटी ने अपने एक्स हैंडल पर बताया कि पापा की हालत स्थिर है और वह स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। आपकी प्रार्थनाएं अपेक्षित हैं। प्रिंट मीडिया इससे संभवत: इसलिए अछूता रहा कि अल्लसुबह सारे अखबार छप चुके थे। सच जो भी हो, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता बनी रही।
इसी दिन यानी 11 नवंबर को एक और दुखद खबर आई कि मध्य रेलवे, मुंबई के महाप्रबंधक श्री विजय कुमार नहीं रहे। 10 नवंबर की रात में वे सोए तो 11 नवंबर को उठ ही नहीं पाए। हृदयाघात से उनका असामयिक निधन हो गया। सुबह यह दुखद समाचार जंगल की आग की तरह मुंबई में फैल गया, लेकिन रेलवे एवं मीडिया ने पर्याप्त खोज-खबर के बाद ही सुबह 10:00 बजे यह घोषित किया कि हमारे महाप्रबंधक नहीं रहे। फिर वह सब कुछ हुआ जो सोशल मीडिया पर धर्मेंद्र के बारे में हुआ था। सवाल यह खड़ा होता है कि सन् 1960 से हिंदी फिल्मों में अपना जादू बिखेरने वाले धर्मेंद्र का स्वास्थ्य खराब होने, उन्हें आईसीयू में भर्ती कराए जाने और उनकी तबीयत में सुधार परिलक्षित होने के बाद सोशल मीडिया में यह खबर कहां से और कैसे आई आ गई कि वह नहीं रहे?
आपको याद होगा कि जब इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या हुई थी उस समय राजीव गांधी कोलकाता में थे। राजीव गांधी के दिल्ली पहुंचने के बाद ही इंदिरा जी के निधन की खबर को सार्वजनिक किया गया था। हम मानते हैं कि प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, उसकी मुख्य भूमिका राष्ट्र निर्माण के साथ ही जनता को सही एवं विश्वसनीय सूचना प्रदान करना एवं संदेहात्मक प्रकरणों की विस्तृत एवं निष्पक्ष जांच कर सत्य जनता के सामने लाने की होनी चाहिए, लेकिन धर्मेंद्र की मृत्यु के अवांछित एवं मिथ्या समाचार से मीडिया की विश्वसनीयता जहां संदेह के घेरे में आ गई है, वहीं सोशल मीडिया के प्रयोगकर्ताओं के व्यवहार एवं आचरण पर भी क्षोभ एवं आपत्ति दर्ज करने का समय आ गया है।
क्या हम इतने अधिक संवेदनशील एवं भावनात्मक हो गए हैं कि जो हमारा पारिवारिक सदस्य नहीं है, उसके निधन के समाचार से हम इतने द्रवित हो जाएं कि सारे कामधाम छोड़कर मोबाइल पर पिल पड़ें? या हमें लगता है कि यदि हमने इस पोस्ट पर सबसे पहले अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी, तो हम इस मिथ्या प्रगति की दौड़ में पिछड़ जायेंगे। हमें हमेशा यह चिंता लगी रहती है कि शेयर और लाइक्स की बाढ़ में कहीं हमारा नाम खो न जाए।
आज मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह खड़े होना स्वाभाविक है क्योंकि जहां मीडिया का केंद्रीयकरण (कार्पोरेटीकरण) हो रहा है, राजनीतिक पक्षपात का प्रतिशत बढ़ रहा है, वहीं मीडिया पर जनता का विश्वास तेजी से घटता जा रहा है। क्योंकि हम ऑस्ट्रेलिया के खोजी पत्रकार, विकीलिक्स के संस्थापक जूलियस असांजे की सीख को भूल गए हैं कि पत्रकारिता विज्ञान की तरह होनी चाहिए, जहां तक संभव हो, तथ्यों का सत्यापन किया जाना चाहिए। यदि पत्रकार अपने पेशे के लिए दीर्घकालिक विश्वसनीय चाहते हैं, तो उन्हें उस दिशा में जाना चाहिए। मैं मीडिया से उम्मीद करता हूं कि अब दीर्घकालीन विश्वसनीयता की ओर अपने कदम बढ़ाए जायेंगे।
डॉ. विपिन पवार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार,
अनुवादक एवं साहित्यकार हैं।
उनसे 8850781397 पर संपर्क किया जा सकता है।

